1.
बात उन दिनों की है जब मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी के अंग्रेज़ी विभाग में M.Phil कर रहा था। एक सेमिनार में हमारे एक साथी को मराठी कवी अरुण कोलटकर की अंग्रेजी में लिखी लम्बी कविता, जेजुरी, पर पेपर पढ़ना था। यह सज्जन बिहार से थे।इनका नाम नहीं लिखूंगा। कोलटकर की मशहूर पंक्तियों की व्याख्या करते करते यह भावनाओं में बह गए थे:
भगवान क्या हैऔर पत्थर क्या हैयह अंतर रेखाअगर हैतो जेजुरी मेंबहुत पतली है
ऐसे बहे थे कि अचानक टेबल पर रखी एक-एक चीज़ को उठा कर कहने लगे: यह ब्रह्म है। और यह भी ब्रह्म है। पैन, कॉपी, पेपरवेट, पानी की बोतल, और जाने क्या-क्या। बहरहाल, इनके सामने बैठे साथी पर भी ज्ञान की जाने कैसी गाज गिरी की वह भी सहसा बुद्ध हो गए। पता नहीं क्यों और कैसे, लेकिन इन्होंने भी ज़ोर-ज़ोर से बोलना शुरू कर दिया। यह सज्जन असम से थे। इनका भी नाम नहीं लिखूंगा। तुम्हारे पास क्या सबूत है कि यह सब चीज़ें ब्रह्म का ही रूप हैं? क्या इतना काफ़ी नहीं कि पैन पैन है, कॉपी कॉपी है, और पेपरवेट पेपरवेट है, और पानी की बोतल पानी की बोतल है?
पांच-सात मिनट तो यह दोनों ऐसे भिड़े जैसे शंकराचार्य और धर्मकीर्ति के ही स्वरूप हों। बावजूद इसके हमारी प्रोफ़ेसर साहिबा के चेहरे पर एक शिकन तक नहीं गुज़री थी। एक ही झटके में उन्होंने इस शास्त्रार्थ को भंग कर दिया था: "बॉयज़, दिस इस दी वर्स्ट कन्वर्सेशन दैट आयी हैव एवर हर्ड इन माय लाईफ़।"
2.
सेमिनार के बाद यह बहस आर्ट्स फैकल्टी के कॉरिडोर में जारी रही। यहाँ चार साथी और भिड़ गए। हाथों में दूध चाय, लाल चाय, और बिस्कुटों के पैकेट धरे यह सभी सिरे के लम्पट फ़िलॉसफ़र थे। इनका डिग्री-विग्री से कुछ लेना देना नहीं था। इसीलिए ये लोग ज़्यादा बेख़ौफ़ हो कर बक-बक करते थे। और इसीलिए मुझे भी इनकी बकबकी ज़्यादा रोचक लगती थी। ख़ैर, इसके कुछ निजी कारण भी थे। मैं इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ कर नया-नया साहित्य और दर्शन की दुनिया में दाखिल हुआ था। पेशेवर उत्तर-औपनिवेशिक (पोस्टकोलोनियल) आलोचकों और उनके शाग़िर्दों के बीच एडजस्ट होना कोई आसान काम नहीं था। पहले दो-तीन महीने तो मैं यही समझता रहा कि गायत्री-दी और पार्थो-दा हमारे M.Phil के ही मेधावी सीनियर हैं। पर फिर सोचता था कि ये कभी किसी दारू पार्टी में क्यों नहीं दिखते? इन शुरुआती दिनों में इन्हीं लम्पटों (और इनकी विरली फ़िलॉसफ़र सहेलियों) ने मेरा हौंसला बढ़ाया था।
इनमें से एक कट्टर वामपंथी थे। शायद बिहार से थे। उम्र में हमसे कुल चार-पांच बरस बड़े होंगे। लेकिन हमेशा अंकल-नुमा खुली-खुली पैंट-कमीज़ पहने रखते थे। एक विद्यार्थी संघटन से भी जुड़े हुए थे। लेकिन मैंने इन्हें कभी कोई सियासी काम करते हुए नहीं देखा था। लाइब्रेरी में दुबके रहते थे। किसी प्रोफ़ेसर के यहाँ नए-नए "रिसर्च असिस्टेंट" लग गए थे। उन दिनों इनकी बिखरी हुई दाढ़ी और भी ज़्यादा बिखरने लगी थी। बाद में हमने सुना था कि प्रोफ़ेसर ने अपनी पूरी किताब ही इनसे मात्र 10,000 रुपयों में लिखवा ली थी। लम्पट से प्रोलेतारी बनने का इनका सफर शायद यहीं से शुरू हुआ था।
दूसरे ब्लैक मेटल के शौक़ीन थे। दिल्ली के एक सुदूर इलाक़े में रहते थे, जहाँ इनके पिता छोटी-मोटी डाक्टरी करते थे। इनकी माँ बथुए के परांठे उतने ही स्वाद बनाती थीं जितना सुन्दर ये गिटार बजाते थे। भाषाविज्ञान के विभाग में दाखिला तो ले रखा था, लेकिन दिन प्रतिदिन इनकी फ़ितरत फ़क़ीरों जैसी बनती जा रही थी। इनकी देखा-देखी ही मैंने भी अपने बाल और दाढ़ी लम्बे कर लिए थे। बालों में सहज रूप से ड्रेडलॉक्ज़ भी निकल आये थे। उन दिनों ये नॉर्वे के एक मक़बूल ब्लैक मेटल बैंड, बुर्ज़ुम, को समर्पित किसी यूरोपियन मल्टी-आर्टिस्ट एल्बम के लिए संगीत बना रहे थे।
तीसरे फ़िल्में बनाना चाहते थे। इनका प्लान था की अगले साल पैसे जुटा कर पुणे के FTII में दाखिला ले लेंगे। फ़िलहाल, नाले के पास, हल्वाई की दुकान के ऊपर एक कमरे में किराये पर रहते थे। इनकी माली-हालत हम में सबसे कमज़ोर मालूम होती थी। पर शायद मध्य प्रदेश में इनके बाप-दादा की कुछ ज़मीन तो थी। ऐसा हमने सुना था।
चौथे योगी थे। उत्तराखंड से चार साल पहले दिल्ली आये थे। उन दिनों अपनी तत्कालीन गर्लफ्रेंड के साथ कुछ महीनों के लिए गोवा जाने का प्रबंध रहे थे।नॉर्थ कैंपस के आस-पास हर क़िस्म के साधु-बाबा से इनकी ख़ास घनिष्ठता थी। योगवशिष्ठ के सूत्रों से अपने प्रवचन शुरू करते थे। और मलना क्रीम की सघनता की स्तुतियों से ख़त्म करते थे। चैस के शौक़ीन थे। इनकी बकबकी मुझे सबसे ज़्यादा परेशान करती थी। शायद इसलिए क्यूंकि इन्होंने मेरी कुंठा के पेच कभी ढीले नहीं होने दिए। मसलन, एक दफ़ा, चिड़चिड़ाहट के वेग में, मैंने इनसे पूछ लिया था कि अगर वाक़ई सब माया है तो नाले के उस पार जब गली के कुत्ते तुम्हारे पीछे भागते हैं, तो तुम आगे-आगे क्यों भागते हो? कुत्ते अगर तुम्हें काट भी लेंगे तो तुम्हारे ज़ख्म और पीड़ा तो माया ही होंगे ना? तब इन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया था, मेरे यार, मेरा भागना भी तो माया ही है। इसके बाद मैं काफ़ी दिन चुप रहा था।
पांचवे अभी-अभी गोवा से वापिस लौटे थे। स्लीपर में जाते हुए इन्होंने हाईडेगर का Being and Time (दोनों पार्ट) पढ़ डाला था। ऐसा हमने सुना था। उन दिनों यह हमेशा जल्दी में रहते थे। गोवा में किसी विदेशी हिप्पी से इनका मिलन भी हुआ था, जो उन दिनों दिल्ली आयी हुई थी। ऐसा हमने सुना था। वह पहाड़गंज के किसी होटल में ठहरी हुई थी। ऐसा हमने सुना था।
मैं भी इसी आलंकारिक थाली का बैंगन था। इंजीनियरिंग की नौकरी तो छोड़ दी थी, लेकिन किसी कारणवश छह महीने से तनख़्वाह लगातार मिल रही थी। अवांत-गार्ड का नया-नया भूत चढ़ा हुआ था। दिन भर कविता, या जिसे मैं "कविता" समझता था, लिखता था। और दुनिया भर के रिसालों को अपने प्रयोग, या जिन्हें मैं "प्रयोग" समझता था, भेजता रहता था। रोज़ रात में वापिस लाजपत नगर आकर अपने इंजिनियर दोस्तों के साथ तीन किंगफ़िशर स्ट्रॉन्ग पीता था। और सुबह-दर-सुबह मेट्रो पकड़ कर वापिस नॉर्थ कैंपस लौट आता था।
3.
आर्ट्स फ़ैकल्टी के कॉरिडोरनुमा अखाड़े में शंकराचार्य और धर्मकीर्ति के सामने धीरे-धीरे यह सभी रलगढ़ स्वरुप प्रकट हुए: मार्क्स, कबीर, कांट, चाणक्य, देरिदा, इत्यादि।
रोज़ की ही तरह बिस्कुट का पैकेट खुलते ही बहस शुरू हुई। पहले ने कहा ब्रह्म ब्रह्म ब्रह्म! ओ भई, अमावस की रात में गली का प्रत्येक कुत्ता पूर्ण स्याह नज़र आता है। यही हाल तुम लोगों का है। टाइम से दिमाग की बत्ती जला लो, बे! वरना जीवनभर अमावस की रात ख़त्म नहीं होगी। और तुम गली के भेदशून्य कुत्ते बन कर रह जाओगे!
दूसरे ने कहा मेरे यार, बोतल बोतल है, पैन पैन है, इस बयान का कुछ भी मतलब नहीं है! सवाल तो यह है कि बोतल किसके लिए बोतल है? बाकी सब बातें फ़िज़ूल हैं। मेरे यार, यह बिस्कुट मेरे लिए बिस्कुट है, तेरे लिए बिस्कुट है। लेकिन इसकी ख़ुदी क्या है? यह हम नहीं जानते। बिस्कुट हम खा तो लेते हैं। लेकिन इसकी ख़ुदी को तो हम छू भी नहीं पाते। इसे जानना-समझना तो दूर की बात है। बिस्कुट की सच्चाई -- मतलब, उसकी ख़ुदी -- हमारे ज़हन की पहुँच से पार की चीज़ है। कुछ समझे?
तीसरे ने कहा बहुत हुई भई बुर्जुआ बकवास! चीज़ों पर कब्ज़ा भी जमाना है परन्तु यह ढोंग भी रचना है कि चीज़ों की अपनी स्वायत्ता होती है। बिस्कुट चबाना भी है और बचाना भी! लेकिन, ख़बरदार, बचाना ऐसे महा-गुप्त, प्राणहीन व्योम में है जहाँ हम ख़ुद ही न पहुँच पाएं। अरे, भाड़ में गयी ऐसी स्वायत्ता! यह बिस्कुट का सच नहीं, बल्कि बुर्जुआ उदारवाद के दर्शन का सच है। अगर पूंजी की इस दुनिया में बिस्कुट का कोई सच है तो वह है उसकी कीमत। बीस रुपये, तीस रुपये, जो भी। फ़ैक्टरी के मज़दूर इसे पांच रुपये में बनाते हैं। कुछ मुनाफ़ा बुर्जुआ अपनी जेब में भरता है। और बाकी बचे मुनाफ़े से और अधिक बिस्कुट बनता है। और इन अधिक बिस्कुटों से और अधिक मुनाफ़ा कमाता है। और तुम, सालों, इन्हीं बिस्कुटों को पेलते हुए इसी बुर्जुआ ज्ञानकाण्ड की पैरवी करते हो। लानत है, साथियों!
चौथे ने कहा बीस-तीस रुपये का पैकेट लेने की औकात तो कामरेड आपकी होगी। हम तो भई पांच वाला ही लेते हैं। लाओ बे, इधर दिखाओ!
पांचवें ने बिस्कुट चाय में डुबोया। बिस्कुट डुबोया तो बिस्कुट डूब गया। ऐसा डूबा कि बिस्कुट गायब। सहसा गायब! बिस्कुट गायब और पांचवां खुश! पांचवां मग्न! पांचवां मुदित! पांचवां मस्त! पांचवां बुद्ध! पांचवां दरवेश! मतवाली मस्ती के इसी घटाटोप में पांचवां एकाएक गा उठा:
ससुरों दरिया चाय का, उलटी वा की धार
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबत सो पार!
बिस्कुटों की गंभीर जुगाली में व्यस्त, पहले ने घेरे को पुनः खोल दिया। पहले ने शुरू से शुरू किया। मेरे यार, क्या यह बिस्कुट वाकई गायब हो गया है? अगर ऐसा है तो इसका आभाव तुम्हें और मुझे अभी भी क्यों महसूस हो रहा है? देखो, ऐसा इसलिए क्यूंकि बिस्कुट के इस आभाव में बिस्कुट अभी भी सम्मिलित है। बिस्कुट गायब नहीं बल्कि निगेट हुआ है। कुछ समझे?
अब बात चली थी, तो निकल पड़ी।
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