Andy Warhol, Kellogg's Cornflakes, Sculpture (silkscreen painted wood) |
ग़रीबी और दरिद्रता में गहरा अन्तर है। भारत लौटने पर जो चीज़ सबसे तीखे ढंग से आँखों में चुभती है, वह ग़रीबी नहीं (ग़रीबी पश्चिम में भी है), बल्कि सुसंकृत वर्ग की दरिद्रता। एक अजीब छिछोरापन, जिसका ग़रीबी के आत्मसम्मान से दूर का भी रिश्ता नहीं।
शायद यह एक कारण है कि भारतीय सिनेमाघरों में फ़िल्म शुरू होने से पहले विज्ञापनों की जो 'कॉमर्शियल' फ़िल्में दिखाई जाती हैं, उन्हें देखकर अँधेरे हॉल में भी शर्म से मेरा मुँह लाल हो जाता है। स्वस्थ, चिकने-चुपड़े बच्चों को मुस्कराती हुई माँएँ जिस अदा से कॉर्नफ़्लेक्स देती हैं, वह न जाने क्यों मुझे असह्य जान पड़ता है। मुझे तीनों ही 'चीज़ें' अश्लील जान पड़ती हैं— बच्चे, माँएँ, कॉर्नफ्लेक्स। यूरोप में मुझे अनेक 'ब्लू फ़िल्में ' देखने का मौक़ा मिला है, किन्तु शायद ही अश्लीलता का इतना नंगा बोध पहले कभी हुआ हो। न जाने क्यों इन फ़िल्मों को देखने के बाद मैं तगड़े, 'तेजवान' बच्चों को बर्दाश्त नहीं कर सकता। उनकी माँओं को तो बिलकुल नहीं।
शुरू-शुरू में एकदम लौटने के बाद मुझे अपनी यह खीज अस्वाभाविक, कुछ-कुछ 'एब्नॉर्मल' जान पड़ी थी। अब मैं धुँधले ढंग से इसका कारण समझने लगा हूँ। सड़क और सिनेमाघर की दुनियाओं के बीच जो अन्तराल हमारे देश में है, वह अन्यत्र कहीं नहीं। स्कूल से लौटते हुए भूखे-प्यासे बच्चे घंटों बसों की प्रतीक्षा में खड़े रहते हैं। चिलचिलाती धूप में उनके सूखे बदहवास चेहरे एक तरफ़, सिनेमा की फ़िल्मों में कॉर्नफ़्लेक्स खाते चिकने चमचमाते चेहरे दूसरी तरफ़। इन दोनों के बीच तालमेल बिठाना मुझे असम्भव लगता रहा है। कोई चीज़ अपने में 'अश्लील' नहीं होती, एक ख़ास परिवेश में अवश्य अश्लील हो जाती है। चेकोस्लोवाकिया के बाद किसी रूसी नेता के मुँह से क्रान्ति की बात उतनी ही अश्लील जान पड़ती है, जितनी एक ऐसे भारतीय मंत्री के मुँह से समाजवाद की प्रशंसा, जो इनकम टैक्स देना भूल गए हों।
यह अन्तराल हर देश में है, किन्तु हमारे यहाँ वह एक सुरियलिस्ट स्वप्न की अद्भुत फैंटेसी-सा दिखाई देता है। शायद यही कारण है, जब से मैं लौटा हूँ, सुबह का अख़बार छूते हुए घबराता हूँ। जो कुछ 'ऊपर' हो रहा है, उसका आस-पास की दैनिक दुनिया से कोई सम्बन्ध नहीं। यह एक विचित्र मायावी दुनिया है; दफ़्तर के कमरों के आगे बैठे ध्यानावस्थित धूनी रमाए चपरासी, काम छोड़कर दोपहर का 'शो' देखनेवाले क्लर्क, नीरो को मात देते हुए व्यंग्य- हास्य कविताएँ लिखनेवाले साहित्यकार, आस-पास के बाज़ारूपन से निरासक्त, किन्तु साहित्य में बढ़ती हुई अश्लीलता से उत्तेजित होनेवाले बुद्धिजीवी—ये सब स्वस्थ, शिक्षित आधुनिक लोग हैं। हमें इन पर गर्व है—होना भी चाहिए। कौन आधुनिक माँ कॉर्नफ़्लेक्स खाते हुए अपने सजीले बच्चे पर गर्व न करेगी?
—निर्मल वर्मा, बीच बहस में (1973), 15-16
No comments:
Post a Comment